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Saturday, May 16, 2020

55) बर्बाद किया इस कदर मुझ को

बर्बाद किया इस कदर मुझ को,
तुम्हें बददुआ सारे-आम की लगे
न मेहंदी लगी थी उस के नाम की तुमको,
न मेहंदी कभी मेरे नाम की लगे

जितनी मोहब्बत उस से थी तुमको,
मुझे उतनी आज तक नहीं करती,
चोरी तो छोड़ो, मेरी खातिर तुम
चोरी से बात तक नहीं करती

उस के दिल को दो तसल्ली,
मेरे सीने को ठंडक कहाँ ज़रूरी है?
ये मुसकाना, हँसना भी तुम
वहीं करो जहाँ ज़रूरी है?

सच्चाई का नाटक करती,
बाकी राज़ छुपाती,
कुछ दिखाती मुझ को, बाकी
 कुछ अलफाज़ छुपाती

उसकी बाहों में शिमला घूमो,
फिर से जाना उसके साथ,
मेरे अरमाँ, मोहताज है तेरे
करते हवा से बात

मुझ पर तोहमत, दोगला हूँ
धोखा तुम से करता हूँ?
काश जानती, तेरी खातिर
रोज़ मैं कितना मरता हूँ

तुम तो सो गई, इल्ज़ाम लगा कर
क्या जानो मेरी कैसे बीती रात?
हर सांस पूछती,  क्या यही है
जो करती थी भरोसे की बात?

रक़ीब से कह लो तुम रोज़,
मिल कर सब ठीक कर लेंगे
जहां दफन करेंगे 'अमन' को,
वहीं अपना नया घर लेंगे ।

Saturday, December 21, 2013

54) साँस चलती रहती है

(Another poem in trash. Wrote it while I was in Vipassana)

साँस चलती रहती है, चाहे याद न रहता हो,
हर लम्हा है तू यादों में, बताता नहीं हूँ मैं |

जो गिर जाऊं मैं नज़रों से, मुझे कौन उठाएगा?
गिरी हुई चीज़ों को खुद, उठता नहीं हूँ मैं |

 कैसे मन की जानें यहाँ?भगवान नहीं कोई,
तो कैसे मैं भी जानूंगा ? विधाता नहीं हूँ मैं |

कब से प्यार बाँटा है, जाने कब तक बांटूंगा ?
मोहब्बत को खुद के लिए, बचाता नहीं हूँ मैं |

छीना क्यूँ दिल का सुकून, और पागल किया मुझे ?
नफरतों के फूल तो, उगता नहीं हूँ मैं |

मेरे मन को क्यूँ इतनी, चोट लगी 'अमन' ?
किसी के दिल को यूँ कभी, दुखाता नहीं हूँ मैं |

53) उन्हें देखना जो था

(Another old poem found in trash)

उन्हें देखना जो था, मेरी नज़र उठ गई,
पर वो थी घुटन में, थोड़ी और घुट गई |

मेरी हसरतों में उसके आँसू तो न थे,
इसलिए, उसे देखने की आदत भी छुट गई |

उसे पहचान चाहिए थी, मैंने पहचान दिलाई है,
फिर प्यार की कैसी मैंने, सज़ा पाई है ?

और सजा भी क्या है? न ज़ख्म है न खून,
है जिस्म ज्यों का त्यों, पर रूह लुट गई |

उसका हर गम मुझे अपना बनाना था,
दिल दरिया था, हर राज़ इस में छुपाना था |

पर जाने उसे क्यूँ गैर, ज्यादा करीब लगे ?
रक़ीब लगे अपने, और हम ग़रीब लगे |

 हर मसला अपना क्यूँ गैरों को सुनाया हाय !
किस्मत में खिलना था, फिर भी मुरझाया हाय !

वो तोड़ के सपने, फोड़ के मेरे सपनों के महल,
मुझे मनाना तो दूर, देखो खुद ही रूठ गई |

52) नहीं आशिक़ी से

(a long lost poem of mine. Found today in heap of old papers while cleaning house)

नहीं आशिक़ी से फ़ुर्सत है अब रूहे-आशिक़ को,
लगे है गर्त भी जन्नत, गुबारे-धुल नहीं पायेगी |

हो जान जिस्म से जुदा सो हो, गम न कर नादान,
मज़ा है जब माशूक़-ए-जुदाई क़ुबूल नहीं पायेगी |

हर वक़्त कुछ कर देने वालों में से था मैं,
मरने जाने पर रूह को तू मक़बूल नहीं पायेगी |

मेरी मोहब्बत का गुल तूने ठुकराया इसलिए,
क़ज़ा पर भी तू मेरे नाम से फूल नहीं पायेगी |

लिखता जा 'अमन' दिल तक, के इक दिन ख़ाक होना है,
कोई रखे न रखे याद, पर वो भूल नहीं पायेगी |

Monday, December 3, 2012

51) ये अदाएँ हैं मेरी

किसी और के चेहरे पे कहाँ थमती हैं?
ये अदाएँ हैं मेरी, सिर्फ़ मुझी पे जमती हैं |

जिस से करता ही रहता था मैं पहरों बातें,
वो पलट कर कभी, जवाब कोई नहीं देती,
सारी दुनिया से छुप कर, मैं जिस से मिलता था,
अब वो सूखे हुए, गुलाब कोई नहीं देती,
 खतों को जोड़ कर, किताबें बना डाली थी कई,
वो मुझे उन में से, किताब कोई नहीं देती,
उसकी साँसे मेरी बाहों में ही सहमती हैं,
ये अदाएँ हैं मेरी, सिर्फ़ मुझी पे जमती हैं |

जो जवानी मेरी उस शख्स पे निछावर थी,
वो असल में मेरे इस मुल्क की अमानत हो,
मैं भटकता रहा, अब जा कर समझ में आया है,
पहले है मुल्क मेरा, और फिर सनम की चाहत हो,
तेरी बिंदिया, तेरे होठों की इबादत की है,
अब ज़रा मादरे-वतन की भी इबादत हो,
किस के जिस्म में भला खुशबू-ए-वतन रमती हैं?
ये अदाएँ हैं मेरी, सिर्फ़ मुझी पे जमती हैं |

50) बेवफा

वो मेरी जान है, उसके बिना रहूँ कैसे?
उसे बेवफ़ा कहूँ तो कहूँ कैसे?

जो मेरे सीने से लग के सो जाती थी,
लब छूते ही जो पागल सी हो जाती थी,
भर के बाहों में मुझे खुद ही खो जाती थी,
उसे बेवफ़ा कहूँ तो कहूँ कैसे?

जो सदा करती थी हर हाल में ख़याल मेरा,
जिसकी अंगड़ाईयाँ करती थी बुरा हाल मेरा,
वो रखा करती थी संभाल के रुमाल मेरा,
उसे बेवफ़ा कहूँ तो कहूँ कैसे?

कान खाती थी वो, ढेर सी बातें करती,
मैंने चूमा जो गर्दन को तो आहें भारती,
मैं उस पे मरता था, वो भी मुझ पर मरती,
उसे बेवफ़ा कहूँ तो कहूँ कैसे?

रख के मेरे पैर पे वो पैर, खड़ी होती थी,
थी वो छोटी सी, मुझे पे चढ़ के बड़ी होती थी,
गम जो होता तो चिपक के मुझ से, रोती थी,
उसे बेवफ़ा कहूँ तो कहूँ कैसे?

एक दिन अचानक वो मुझे छोड़ गई,
बहुत रोया मैं, दिल वो मेरा तोड़ गई,
और वो भी मेरी यादों में रोती है,
तकिये को मेरा सीना समझ के सोती है,
और कहती भी नहीं, गम ये मैं सहूँ कैसे?
उसे बेवफ़ा कहूँ तो कहूँ कैसे?

Wednesday, November 30, 2011

49) तुझे याद कर के

जब गला भर आता है ये, तुझे याद कर के,
जब शमा बुझाता है परवाना तुझे याद कर के,
तब करूँ तो मैं क्या करूँ, ये कैसी कसम दी है?
के रो भी नहीं सकता मैं अब, तुझे याद कर के|

हलक तक आकर लफ़्ज़, फँस कर रह जाते हैं,
गर जुबान पर आये तो ये, आँसू बन जाते हैं,
इसीलिए, एक घूँट में, पी गया एहसास,
ताकि आँसू ना पीने पड़ें अब, तुझे याद कर के|

दोस्तों ने बनाया मजाक, मेरी मोहब्बत का,
तूने भी उड़ाया मजाक, मेरी मोहब्बत का,
किस-किस को सुनाया मजाक, मेरी मोहब्बत का,
और जिया उसी मोहब्बत के लिए मैं, तुझे याद कर के|

आज़ाद कर दे मुझको, तुझसे मिलने आऊँगा,
वो कसम हटा दे वरना अमन मैं, कुछ कर जाऊंगा,
ना मिला तो जान मैं सच-मच मर जाऊंगा,
वैसे भी मरना ही है अब, तुझे याद कर के|

Monday, November 7, 2011

48) ना सही


तेरे साथ बिताए थे, जो हसीन पल मैंने हज़ार,
अब जिंदगी तेरे बिना जीनी पड़े तो भी सही,

तुझे मुझ से नफरत जो हो गई है इस क़दर,
के भूल गयी है बरसों की अपनी मोहब्बत को सही,

सीने में सजा के रखूंगा मैं तेरे प्यार का मदिर,
मूरत तेरी हो सही, जो ना हुई तो ना सही,

तू भी मुझ को याद कर के तड़पा करेगी ज़रा ज़रा,
और पोंछेगा तेरे आँसू, जो मैं नहीं तो कोई और सही,

तड़प मुझे भी है, तेरी जुदाई के गम की कसम,
पर जिंदगी है इस तरह तो जिंदगी यूं ही सही,

अपनी मोहब्बत कभी भी अपना नगमा बन पाई नहीं,
ये बन जाए 'अमन' की एक शायरी तो वही सही....

(Dedicated to one of my best friends who ...)

Tuesday, May 10, 2011

47) बरसों के दर्द के साथ

बरसों के दर्द के साथ, जब आह निकल गयी,
वो इश्क निकल गया, संगदिल की चाह निकल गयी|

देख उन के जलवे, सब हैरान हैं जब वो
लहरा हवा में आँचल, यूँ सरे राह निकल गयी|

जो तुझे बता ना पाया, वो शर्म-ओ-हया की बात,
सो कलम से हो कागज़ पर, बेपनाह निकल गयी|

टकरा के मेरे दिल से, गूँजी है तेरी हर बात,
सो नज़र जिगर के पार कुछ इस तराह निकल गयी|

कभी आशिक की तुरबत से हो कर, तुम गुजर गए,
कभी गलियों से खुद मेरी, दरगाह निकल गयी|

रोक रखी थी जान के इंतज़ार में ही जान,
आये तो जान के साथ 'सुभानल्लाह' निकल गयी|

ज़ानों पर बैठा था, हाथ में मोहब्बत-ऐ-गुल लिए,
वो नज़र हिला के मौज में, बेपरवाह निकल गयी|

क्यों उन ही से मोहब्बत होनी थी, मुझ गरीब को?
दिल के आर-पार, नज़र-ऐ-ज़ादी-ऐ-शाह निकल गयी|

क्यों मेरी तरह भंवरों ने भी रखा है दिल पर हाथ,
शायद गुलशन से भी उस की इक निगाह निकल गयी|

'अमन' को भी है कदर-ओ-हवस, मेरी शायरी की,
जो बेइख्तियार ज़ुबान से भी, वाह निकल गयी|

Meanings: संगदिल-stone heart, हैरान-astonished, शर्म-ओ-हया-blushing and shyness
         इस तराह-in such a way (इस तरह), तुरबत-coffin, ज़ान-knees
         ज़ादी-ए-शाह-princess (शहज़ादी), नज़र-ए-ज़ादी-ए-शाह-a look of princess
         क़दर-ओ-हवस-respect and wish, बेइख्तियार-uncontrolled, वाह-wow

Wednesday, May 4, 2011

46) शायराना हो गए हम

शायराना हो गए हम ऐतबार में,
खुशी मिली है कब-किसे उजड़ी बहार में?

मुस्कुराता हूँ तेरे बिना भी जानशीन,
दर्द दिखता हो भले मेरे अशार में|

उम्मीद लाऊँ कैसे मैं तेरे नाम पर?
बिखर चुके हैं अरमां सब तार-तार में|

वफ़ा नहीं मिली उसके खून में वरना,
खूबियाँ हज़ार हैं मेरे यार में|

वो कह गए थोड़ी सी देर में आने को,
यहाँ लाश हो गए हैं हम इंतज़ार में|

हमने दिल दिया था उनको बड़े शौक से,
उसने बेच दिया उसे दिल के बाज़ार में|

दुनिया पागल कह कर हँसती है दीवाने पर,
ऐसा लुटा 'अमन' एक 'तँवर' के प्यार में|

Meanings: ऐतबार-trust जानशीन-an address to
         beloved अशार-plural of शेर, couplets in urdu poetry
         उम्मीद-hope अरमां-dreams तार-तार में-into pieces
         वफ़ा-faithfulness, खूबियाँ-qualities दीवाना-crazy