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Sunday, March 14, 2010

21) जितने ख्वाब लेकर मैं जीता हूँ

जितने ख्वाब लेकर मैं जीता हूँ
की वो दिन आएगा जब
मैं बनाऊंगा तुझे मेरी दुल्हन
और इसी आस के सहारे
खुद को ख़ाक तक कर देने की चाहत
मेरे जिस्म से आग सी निकलती है|
शायद उससे भी ज्यादा
तुझे है अरमाँ
मेरी दुल्हन बनने का
जो तेरी आँखों में देखता हूँ मैं
जब भी तुझसे मिलता हूँ|
पर जाने क्यों
किसी बात से डरती है तू
कहती है खुद की गलत है ये
हमारे समाज में प्यार की
इजाज़त नहीं है, उम्र से पहले
पर न वो उम्र पता है तुझको
न रोक पाति है खुद को भी मुझे चाहने से||
पगली है तू जिससे प्यार मुझे है
और तेरी मासूमियत पर मुझे
फिर और भी प्यार आता है|
जी करता है तेरी आखों में
डालकर आखें देखूँ वो नूर
और चूम लूं उन लबों को
गुलाबी लाल, जो उतर दें मुझमें
मदहोश नशा वो प्यार का|
रहूँ उसी अवस्था में...
अनंत तक|
सोचता हूँ,
उस नशे से भी ज्यादा
और नशा क्या होगा
पर...
मैं तो मर ही जाता हूँ जब
झुका के नज़रें और
शरमा के फेर लेती है तू मुखड़ा
छिपा लेती है वो होंठ|
फिर धीमे से कहती है कि
"मेरी तरफ यूँ मत देखो
मुझे प्यार आ रहा है"
हाय! क्यों न जान निसार कर दूँ तुझपे,
क्यों सब कुछ न लुटा दूँ मैं
तेरी इन भोलेपन की अदाओं पर?
और क्यों उम्मीद रखूँ
कुछ और पाने की
उस पल से सृष्टि के अंत तक
जब तेरा प्यार है मेरे साथ
यूं ही, हमेशा, हमेशा!!

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