Pages

Wednesday, March 2, 2011

34) इक ज़ख्म बना था दोस्त

इक ज़ख्म बना था दोस्त मेरा, उसको मैंने भरने ना दिया|
कुरेदता रहा उम्र भर उसको, दोस्त को मरने ना दिया|
जब तक मैं ज़िंदा हूँ, ज़ख्म भी जिंदा रखूंगा|
अब दर्द हो तो हो, तन्हाई तो न होगी|

आखिरी बार जाना मुझे, लगा ख्वाइश-ए-ज़हर था|
इस दफा तो यूँ लगा, जैसे मेरा ही शहर था|
वही दर-ओ-दीवार थे, उसी में थी तू|
महज़ ख्याल ही सही, रुसवाई तो न होगी|

जाता नहीं मैं खुदा के दर, भला वो भी तो है इक पत्थर|
फिर कैसे ज़माने को उसमें, खुदा की मूरत दिखती है?
जग रब की करे इबादत, मैं करूँ इबादत यार की|
फिर लाख दो ताने, दिल में बेपरवाई तो न होगी|

शराब भी नहीं पीता, डर है, कहीं अमन न दिखे बेखुदी में|
नशे में, लोगों ने कहा है, यार की सूरत दिखती है|
ना उनके दिखे से दिल में ठंडक, न जाम से सुकून-ऐ-जिगर,
अब आग लगे सो लगे बज़्म-ऐ-दिल, सुनवाई तो न होगी|

Meanings: ज़ख्म-wound ख्वाईश-ए-ज़हर-wish to have poison
         एक दफा-once दर-ओ-दीवार-door and walls महज़-only
         रुसवाई-dis-honor खुदा का दर-Temple इबादत-worship
         ताने-taunts बेपरवाई-carelessness बेखुदी-unconsciousness (here, drunken)
         सुकून-rest जिगर-liver बज़्म-court सुनवाई-hearing of a court

No comments:

Post a Comment