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Tuesday, December 8, 2009

17) ये नज़र (9th class)

कभी तो पहचानेंगे हम तुम्हारी नजरो को
कभी तो सुनेंगे तुम्हारे खुले हुए इन अधरों को
इन उठती-झुकती आखों में न जाने क्या राज़ है
इस गुस्से में भी कितना प्यारा तुम्हारा अंदाज़ है
आज तो तुम मेरे साथ हो, उतर दो इन गजरो को
कभी तो पहचानेंगे, हम तुम्हारी नजरो को

जब वक़्त था तो मौका नहीं था
और वक़्त गया तो देखने लगे हम
देना चाहें कितनी खुशियाँ
लेना चाहें कितने ही गम
तुम क्या जानो, सु सुनाते हैं
वो कहते सिर्फ बेकद्रो को
कभी तो पहचानेंगे, हम तुम्हारी नजरो को

अपने अपने गुरूर में हम
लड़-कट कर मर सकते हैं
पर मिल जायें हम दोनों
तो क्या नहीं कर सकते हैं?
पार कर सकते हैं हम तब हज़ारो गदरो को
कभी तो पहचानेंगे, हम तुम्हारी नजरो को

तुम भीड़ में घिर गए हो साथी
साथ तुम्हें अब चाहिए
अकेले तो निकल नहीं सकते
हाथ तुम्हें अब चाहिए
फिर छोड़ जायेंगे हम दर्द भरे इन नगरो को
कभी तो पहचानेंगे हम तुम्हारी नजरो को

(Written in 9th class. One of my friend wanted to propose a girl. He asked me to write a poem so that he could impress her. Girl was also in some problems since few days due to some loafer boys. Hence, my this friend wanted to help her out. So, the theme of poem required appropriate words to the conditions. Later on, their pair emerged out as a nice couple.)

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